चित्रकला – (225)
हल सहित नवीनतम् प्रश्न-पत्र – 1
समय 1½ घण्टे
पूर्णांक: 30
धार्मिक कलाओं में दैवीय गुण देखने को मिलते हैं। गुप्तकालीन कला के प्रमुख गुणों में होंठों का थोड़ा-सा टेढ़ापन मूर्ति की आकृति में गोलाई, लकड़ी पर की गई खुदाई तथा सरलता प्रमुख हैं, जो उस युग की विशेष पहचान बन गई। धार्मिक मूर्तियों के साथ-साथ चित्र धर्मनिरपेक्ष कलाकृतियाँ भी काफी संख्या में बनाई गई। इसी युग में अजंता के प्रसिद्ध चित्र बनाए गए थे। चित्रों तथा मूर्तियों के अतिरिक्त गुफाओं तथा मन्दिर वास्तुकला में बहुत उन्नति हुई, जो मध्य प्रदेश की उदयगिरि गुफाओं तथा नाचना एवं भूमरा में देखने को मिलती है। वस्तुतः गुफाओं तथा मन्दिर वास्तुकला का प्रारम्भ एवं उत्थान इसी काल में देखने को मिलता है। संक्षेप में, गुप्तकाल भारतीय इतिहास का प्रतिष्ठित युग माना जाता है।
अजन्ता के चित्रकारों (कलाकारों) ने परम्परावादी टैम्परा पद्धति का प्रयोग किया है। अजन्ता के भित्ति चित्रों का विषय मूलरूप से धार्मिक था। इसके साथ-साथ कलाकारों (चित्रकारों) को अपनी रचनात्मक एवं कल्पनात्मक कला के प्रदर्शन की अनुमति भी थी। इसके लिए उन्हें पर्याप्त अवसर प्रदान किए। इन भित्ति चित्रों की विशेषता यह भी है कि धार्मिक विषयों से संबद्ध चित्रों को साधारण जन भी देखकर आनन्दित हो सकता है। अजन्ता चित्रों में अश्वेत राजकुमारी सर्वोत्तम कृति मानी जाती है। इन चित्रों में स्वतन्त्र रेखाओं का प्रयोग तथा कलाकार की कला के द्वारा प्रदर्शित अंगों का गूढ़ सामन्जस्य, चेहरे का थोड़ा-सा तिरछापन एवं आँखों की नक्काशी सभी कुछ कलाकारों की सिद्धहस्तता के नमूने हैं तथा अपनी तूलिका पर कलाकार का नियन्त्रण दर्शाते हैं। यहाँ तक कि जो चित्र क्षतिग्रस्त हो गए हैं, वे भी रंगों का सौंदर्य प्रस्तुत करते हैं। चित्रों में संगीत की गीतात्मकता का अनुभव होता है।
भारत के कुछ भागों में मन्दिर वास्तुकला को भी इसी काल में बढ़ावा दिया गया। माउन्ट आबू के दिलवाड़ा में संगमरमर के मन्दिर समूह तथा बंगाल एवं उड़ीसा में पक्की मिट्टी (टेरीकोटा) के बने मन्दिर बहुत सुन्दर हैं।
उत्तर- बंगाल में कढ़ाई और रजाई (लिहाफ) पर अत्यंत मनमोहक कढ़ाई की लोक प्रथा है। इस प्रथा का नाम कन्था है। प्रयोग न की जाने वाली पुरानी साड़ियों तथा धोतियों पर कन्था बनाई जाती है। इन्हें मोटा (भारी) बनाने के लिए जोड़कर सिल दिया जाता है। बंगाल में सभी श्रेणी की महिलाएँ यह कार्य करती हैं। विशेषतः वृद्ध महिलाएँ अपने अतिरिक्त समय में यह कान करती हैं। रंगीन धागों से पुरानी साड़ियों की सतह पर अलग-अलग तरह की परिकल्पना की जाती है। रजाइयाँ (लिहाफ), शादी की चटाइयाँ थैले शीशे तथा गहने-जवाहरातों को ढकने के लिए कपड़ों पर कढ़ाई की जाती है।
कन्थाओं के मोटिफ और डिजायन ग्रामीण प्राकृतिक दृश्यों, कर्मकाण्डीय और धार्मिक क्रियाओं (मंडाला), नित्य प्रयोग में आने वाली वस्तुओं, ग्रामीण त्यौहार, सरकस तथा अन्य मनोरंजन प्रदान करने वाले खेलकूद तथा एतिहासिक हस्तियाँ जैसे कि रानी विक्टोरिया से लेनिन तक के चित्रों से लिए जाते हैं। इन कन्थाओं के मोटिफ यह स्पष्ट करते हैं कि इसके कलाकार यद्यपि प्रायः अनपढ़ होते हैं; लेकिन इनमें अपने आसपास की वस्तुओं को गौर से देखने की निरीक्षण शक्ति होती है।
सूचीबद्ध कन्था एक प्रकार की साड़ी है, जो एक विशिष्ट पारम्परिक शैली तथा तकनीक से सिली होती है। इनके मोटिफ विभिन्न प्रकार के पशु तथा मानवी आकृति के रूप होते हैं। साड़ी के आधार गुलाबी रंग को विभिन्न रंगों के धागों से चेन स्टिच (श्रृंखलाबद्ध धागों की कढ़ाई) पद्धति से कढ़ाई की जाती है। इसमें सफेद, हरा, बैंगनी, लाल, भूरा, पीला तथा काले रंग का प्रयोग किया जाता है।
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